मजदूर दिवस (१मई ) विशेष ! मजदूरों की दुर्दशा पर चुभते सवाल

वह जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है। उसी के दम से रौनक आपके बंगलों में आई है। अदम गोंडवी साहब की कविता की ये पंक्तियां दुनिया में मजदूरों के महत्व का बयान करती हैं। मजदूर के बिना इस दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती। हां वह मजदूर ही है, जो खेतों खलिहानों से होते हुए खदानों और कारखानों तक अपना खून पसीना बहा कर, दुनिया के विकास को नए नए आयाम देता है। विकास के जिन कीर्तिमानों पर दुनिया भर के मठाधीश इतराते हैं। वह सब कुछ इन्हीं मजदूरों के हाथों और उनके अथक मेहनत से बनाया हुआ है। हम और आप रोज मजदूरों को देखते हैं। हमारे मोहल्लों से लेकर संसद के गलियारों तक यह मजदूर हर जगह फैले हुए हैं। घर के भीतर से लेकर समुद्र के भीतर तक इनकी उपस्थिति नजर आती है। लेकिन दुनिया ने इन्हें हमेशा हाशिए पर रखा है। आज 1 मई है। इसे मई दिवस और मजदूर दिवस भी कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय तौर पर मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत 1 मई 1886 को हुयी। इसके बाद 1889 में अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में ऐलान किया गया कि शिकागो के हेय मार्केट नरसंहार में मारे गए निर्दोष लोगों की याद में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा। और इस दिन सभी कामगारों और श्रमिकों का अवकाश रहेगा। दरअसल 1 मई 1886 को अमेरिका के सभी मजदूर संघ मिलकर यह तय करते हैं कि वह 8 घंटे से अधिक काम नहीं करेंगे। जिसके लिए वे हड़ताल करेंगे। क्योंकि उस समय मजदूरों से 10 से 16 घंटे काम लिया जाता था । उन्हें किसी भी तरह की सुरक्षा नहीं दी जाती थी। काम के दौरान चोट इत्यादि लग जाने पर इलाज तक नहीं करवाया जाता था। उसी के विरोध में शिकागो के हेय मार्केट में हड़ताल कर रहे मजदूरों पर अंधाधुंध फायरिंग से सैकड़ों लोग मारे गए थे। उन्हीं मजदूरों की याद में 1 मई को मजदूर दिवस घोषित कर दिया गया। इसी घटना के फलस्वरुप कुछ समय बाद भारत व अन्य देशों में 8 घंटे वाली काम की पद्धति को अपनाया जाने लगा। भारत में मजदूर दिवस कामकाजी महिलाओं और पुरुषों के सम्मान में मनाया जाता है। अक्सर हम मजदूर शब्द पर भ्रमित रहते हैं। हम कड़ी शारीरिक मेहनत करने वाले को ही मजदूर समझने की भूल करते हैं। जबकि मजदूर वर्ग में वे सभी लोग आते हैं, जो किसी भी तरह का काम करने के बदले मेहनताना लेते हैं। शारीरिक व मानसिक रूप से मेहनत करने वाला हर इंसान मजदूर है। फिर चाहे वह खेत खलिहान में काम कर रहा हो या फिर किसी वातानुकूलित ऑफिस में बैठकर फाइलों में काम कर रहा हो। भारत में पहली बार इसकी शुरुआत 1 मई 1923 को मद्रास में “लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान” ने की थी इस मौके पर पहली बार भारत में आजादी से पहले लाल झंडे का प्रयोग किया गया था। लगभग एक सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद भी मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए शिकागो में आंदोलन किया था। वह हालात आज तक न तो बदले और न ही सुधरे। मई दिवस आते रहे, जाते रहे, लेकिन मजदूरों का कोई पुरसाहाल नहीं हुआ। उनकी हालत जस की तस रही। या यूं कह सकते हैं कि बद से बदतर होती चली गई। उसके शांतिपूर्ण आंदोलनों पर हुक्मरानों के इशारे पर लाठियां और गोलियां चलती रही। उनकी आवाज कभी नहीं सुनी गई। क्योंकि सत्ता में बैठे हुए लोग हमेशा पूंजी के हाथों की कठपुतली होते हैं। और उन्हीं की चाकरी में लगे रहते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में इंसानी जानों की कोई कीमत नहीं होती। वहां मजदूरों को इंसान नहीं समझा जाता। मजदूर उनकी नजर में मात्र मशीन हैं। मजदूरों ने अपने हकों की लड़ाई के लिए तमाम तरह के अलग अलग संगठन बना रखे हैं। वह अलग-अलग वर्गों में बंटे हैं। जातियों और धर्मों में बंटे हैं। और यह सब साजिश सत्ता के गलियारों में बैठकर रची जाती है। मजदूरों के आंदोलनों को दबा दिया जाता है। वह जब कभी भी अपनी मांगों को लेकर खड़े होते हैं। तो उन्हें कुचल दिया जाता है। मजदूर एकता की बड़ी-बड़ी बातें तो होती हैं, लेकिन टुकड़ों में बटी हुई मजदूर शक्ति कभी भी एकजुटता का परिचय नहीं दे पाई। वह मेहनत करता है। उसकी मेहनत से दुनिया भर की अर्थव्यवस्थायें चलती हैं। बावजूद इसके उसे भरपेट भोजन नहीं मिलता। वह इलाज और दवा के अभाव में दम तोड़ता है। दुनिया भर के घर और मकान बनाने के बावजूद भी वह जो झोपड़ों में रहता है। उसके बच्चों को स्कूल नसीब नहीं होता। वह तंगहाली में पैदा होता है। और तंगहाली में ही मर जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी यही सिलसिला चलता है। अभी इस समय हम देख रहे हैं कि दुनिया भर में महामारी के कारण अफरा-तफरी का माहौल है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। पूरा देश संपूर्ण बंदी में है। अचानक हुई इस बंदी से देशभर में विभिन्न शहरों में लोग फंस गए। जिनमें सबसे बड़ी संख्या मजदूरों की थी। वह जहां फंस गए अभी तक फंसे हैं। किस तरह से इन मजदूरों के जीवन के दर्दनाक पहलू सामने आए उन्हें देश ने क्या समूची दुनिया ने देखा। उस पर राजनीतिक घमासान मचा हुआ है। लेकिन उनकी सुधि लेने वाला कोई नहीं है। वह फंसे हैं, मर रहे हैं, सरकारों पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। क्योंकि उनकी नजरों में यही उनकी नियति है। इस अचानक हुई बंदी ने उनके यंत्रणा भरे नारकीय जीवन के नासूर से बहते हुए मवाद को सामने ला दिया। थोड़ी बहुत चर्चा हुई और फिर “सब कुछ ठीक है” की तर्ज पर चुप्पी साध ली गई। तो क्या यह सिलसिला हमेशा इसी तरह चलता रहेगा। बिल्कुल! तब तक चलता रहेगा, जब तक मजदूर अपनी लड़ाई स्वयं संगठित होकर नहीं लड़ेगा। टुकड़ों में बंटी हुई इन छोटी-छोटी लड़ाइयों को, आंदोलनों को एक संगठित बड़ी लड़ाई में बदलना होगा। क्योंकि सरकारों से उम्मीद करना बेमानी है। वहां पूंजी का आदेश चलता है। जो कभी ऐसा नहीं चाहेंगे। अगर सरकारों से हालत बदलती तो कब की बदल गई होती। तुम्हारी इस हालत के लिए भाग्य नहीं, व्यवस्था जिम्मेदार है। और व्यवस्था में सुधार लाने के लिए सत्ता में दखल देने का प्रयास करना होगा। विधान निर्मात्री संस्थाओं में प्रतिनिधित्व इसकी अनिवार्य शर्त है। जो तुम कर सकते हो। तुम करते हो। लोकतंत्र में अपने मतों का प्रयोग करते हुए सत्ता में भागीदारी जब तक तुम नहीं करोगे, तब तक इसी तरह झूठे मजदूर दिवस मनाते रहोगे।
डा राजेश सिंह राठौर
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
एवं विचारक।

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